बिहिबार, १३ बैशाख २०८१

कविता

डॉक्टर साक़िब हारूनी

२३ बैशाख २०७७, मंगलवार १३:४६ मा प्रकाशित
बन्दे पिंजड़े में अब इक सुगा की तरह
अपनी आवाज़ मैं खो चुका हुँ अभी
बोलियाँ दूसरों की ये बोले ज़बाँ
साँस लेने पे पाबंदियाँ भी तो हैं
कश्मकश फ़िक्र ओ जज़्बात में आज कल
इक बग़ावत की बु आ रही है मुझे
कोई मरहम मदावा मोयससर नहीं
बन्द पिंजड़े में अब इक सुगा की तरह
कुछ तो बोलो ज़रा आज मैं किया करूँ
शहर ए आवारगी भी तो ख़ामोश है
सिर्फ़ फ़ितरत है मंज़िल तरफ़ ग़ामजन
बाक़ी सब क़ायदे झूट साबित हुए
फिर मुखौटा भी चेहरे का ज़ाहिर हुआ
शर्म भी मुझको आती नहीं आज कल
बन्द पिंजड़े में अब इक सुगा की तरह
मेरे रिश्तों का जंगल जले दूबदु
तुतियाँ उड़ गईं तैर ए मानूस सब
न कोई बुलबुल ए ख़ुशनवा की सदा
न ही कोयल की कुकु बवक्त ए सहर
न अज़ान ए मोआज़्ज़िन सुनाई भी दे
मेरा एहसास मायल ब जिंदान है
बन्द पिंजड़े में अब इक सुगा की तरह
अब ज़माने का फिरऔन लाचार है
लेके मूसा असा नील के पार है
ताक़तों का तवाज़ून बदल सा गया
अपने अंजाम को ज़ुल्म पहुँचेगा किया?
सुर्ख़ सूरज उफ़ुक़ पर नमुदार है
आओ मिल करके ज़ालिम की स्वागत करें
बन्द पिंजड़े में अब इक सुगा की तरह

तपाईंको प्रतिकृयाहरू

कला/साहित्य

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